आज भारतीय साहित्य के बहुप्रशंसित लेखक ‘मुंशी प्रेमचंद’ की 140वीं जन्मतिथि पर हम आपके लिये उनकी एक बेहद सुन्दर रचना लेकर आए हैं जिसका नाम है ‘सुभागी’ ‘सुभागी’ मुंशी प्रेमचंद लिखित गांव की एक भोलीभाली लड़की की कहानी है। इस कहानी में मुंशीजी ने पुरुष शासित समाज में एक नारी के आत्ममर्यादा के संघर्ष के बारे में बताया है। यह एक मधुर व मर्मस्पर्शी कथा है। अभीनेता-वर्ग और आभार सूची
स्वीकृतियाँ
1. आदी शंकराचार्य 2. एम. एस. सुब्बुलक्श्मी 3. स्वामी ब्रह्मनंदजी महाराज
कहानी : मुन्शी प्रेम चंद, नाट्य रुपान्तर व लिपी:अनन्या राय, तुलसी महतो :रिषी गुप्ता, सजन सिंह : विश्वजीत विश्वास, हरिहर एवं लालाजी : सुशील कांति, गौरी की मां :स्वर्णाली साहा, छोटी सुभागी : रिमझिम दास, छोटी गौरी : अयन्तिका नैया, पड़ोसन 1 तथा 2 : ईना बागची, रामू : शुभजीत सुमन हालदार, रामु की पत्नी : सोमा नाहा, लल्लन :चिरंतन राय, किशन सिंह : चयन दे, लक्ष्मी तथा काकी :अनन्या राय, गौरी :सुचंद्रा भट्टाचार्या तथा सुभागी :सान्त्वना सेन, गीत के स्वर : सुचंद्रा भट्टाचार्या, रितुश्री चक्रवर्ती,
हार्मोनियम: रितुश्री चक्रबोर्ती, पत्रलेखा गांगुली और राजा देबनाथ
अभिलेख: दे, सेन, विश्वास, चित्रण : सांन्तवना सेन, ध्वनि तथा संगीत : विश्वजीत विश्वास, विडियो चित्रण : रिषी गुप्ता, उपास्थापिका: इना बागची, निर्देशन : चयन दे, बारानगर नंदीरोल की प्रस्तुति
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छोटी सुभागी
शो के पहले एपिसोड में मिलिये हमारी छोटी सी सुभागी से महज़ ग्यारह वर्ष की सुभागी अपने माता-पिता को हमेशा खुश और सुखी रखने की कामना करती है. सारा दिन बाज़ार में मेहनत कर जो भी कमाती है, वो अपने माता-पिता के लिये जमा करती है. ऐसी सयानी बिटिया के माता-पिता को भला, उस पर गर्व कैसे ना हो. लेकिन सुभागी के जीवन से जुड़ी एक चिंता उन्हें हमेशा खाये जाती है. आइये उनकी इस चिंता के बारे में सुनते हैं।
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बंटवारा
सुभागी ने कभी भी अपने भैया और भाभी की गृहस्थी में अपने कारण कोई परेशानी नहीं आने दी है. फिर भी वो उन्हें एक आंख नहीं भाती है. वे हमेशा उसे कोसते रहते हैं. यहाँ तक की अपने माता-पिता को भी बुरा-भला कह देते हैं. इस बार तो उन्होंने हद पार कर दी! भरी पंचायत में बंटवारा की मांग की, सुभागी को लगता है कि इस बटवारे के पीछे की असली वजह वह है. क्या उसका यह डर सही है?
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भाई या बैरी
इस एपिसोड में सुनिये किस तरह एक बेटा अपने माता-पिता के प्रति अपना फ़र्ज़ निभाने से इनकार करता है और एक बेटी, बेटा बनकर उनका सहारा बनकर दिखाती है।
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किस्त की पक्की
पिता के जाने के बाद अब सुभागी को माता के बीमार होने का गम सता रहा था. लेकिन वह टूटी नहीं, बल्कि और भी ज़्यादा सशक्त होकर अपना जीवन जीने लगी।
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संघर्ष का अंत
आखिकार सुभागी सज्जन काका का कर्ज़ चुकाने में सफ़ल हुई. उसके संघर्षों का अंत हुआ और उसने खुशियों का एक नया सवेरा देखा।