युद्धभूमि में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया था वह श्रीमद्भगवदगीता के नाम से प्रसिद्ध है।
श्रीमद्भगवद्गीता की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्ध है। जिस प्रकार एक सामान्य मनुष्य अपने जीवन की समस्याओं में उलझकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और उसके पश्चात जीवन के समरांगण से पलायन करने का मन बना लेता है उसी प्रकार अर्जुन जो महाभारत का महानायक है अपने सामने आने वाली समस्याओं से भयभीत होकर जीवन और क्षत्रिय धर्म से निराश हो गया है, अर्जुन की तरह ही हम सभी कभी-कभी अनिश्चय की स्थिति में या तो हताश हो जाते हैं और या फिर अपनी समस्याओं से उद्विग्न होकर कर्तव्य विमुख हो जाते हैं ऐसे समय से निकलने के लिए हम आपके लिए लेकर आए है स्वयं भगवान कृष्णा की वाणी मे दिया हुआ ज्ञान जिसे आप सुन सकते है हमारे इस शो श्रीमद्भगवदगीता में सिर्फ aawaz.com पर
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ट्रेलर
युद्धभूमि में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया था वह श्रीमद्भगवदगीता के नाम से प्रसिद्ध है।
श्रीमद्भगवद्गीता की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्ध है। जिस प्रकार एक सामान्य मनुष्य अपने जीवन की समस्याओं में उलझकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और उसके पश्चात जीवन के समरांगण से पलायन करने का मन बना लेता है उसी प्रकार अर्जुन जो महाभारत का महानायक है अपने सामने आने वाली समस्याओं से भयभीत होकर जीवन और क्षत्रिय धर्म से निराश हो गया है, अर्जुन की तरह ही हम सभी कभी-कभी अनिश्चय की स्थिति में या तो हताश हो जाते हैं और या फिर अपनी समस्याओं से उद्विग्न होकर कर्तव्य विमुख हो जाते हैं
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श्लोक 1
"धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥"इस श्लोक में धृतराष्ट्र संजय से पूछते हैं कि कुरुक्षेत्र में उनके पुत्रों और पांडवों ने क्या किया। आइये सुनते हैं इस श्लोक का पूरा भावार्थ।
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श्लोक 2
"दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥""इस श्लोक में संजय धृतराष्ट्र से कहते हैं कि पांडवों की युद्ध संबंधी व्यवस्था देखने के बाद दुर्योधन ने अपने गुरु द्रोण से संपर्क किया है।
आइये समझें इस श्लोक का भावार्थ " -
श्लोक 3
"पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥"इस श्लोक में दुर्योधन अपने गुरु द्रोण से कहते हैं, "हे आचार्य! आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न ने इस विशाल सेना को कितने कौशल से व्यवस्थित किया है, देखिये.
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श्लोक 4
"अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥"युद्ध में भीम और अर्जुन के समान इस सेना में महान धनुर्धारी सात्यकि, महारथी राजा द्रुपद तथा विराट जैसे वीर पुरुष है।
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श्लोक 5, 6
"धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः ॥
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥""धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान काशिराज, पुरुजित, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी
युधामन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी के पांचों पुत्र ये सभी महारथी हैं।" -
श्लोक 7, 8
"अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥"इस श्लोक में दुर्योधन गुरु द्रोण से कहते हैं, "मैं अपनी सेना के उन नायकों के बारे में बताना चाहता हूं जो सेना को संचालित करने में निपूर्ण है। हमारी सेना में आप, भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वथामा, विकर्ण तथा भूरिश्रवा हैं जो युद्ध में कभी नहीं हारे।
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श्लोक 9
"अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥"दुर्योधन गुरु द्रोण से कहते हैं, "और भी अनेक वीर हैं जो मेरे लिए अपना जीवन त्याग करने के लिए तत्पर हैं और वे सभी अलग-अलग हथियारों के साथ-साथ युद्धकला में निपुण हैं।"
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श्लोक 10
"अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥"दुर्योधन गुरु द्रोण से कहते हैं, "हम सभी पितामह द्वारा संरक्षित हैं और हमारी शक्ति अपरिमेय है। वहीं, पांडवों की शक्ति भीम की वजह से संरक्षित होकर भी सिमित है।
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श्लोक 11
"अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥"दुर्योधन आगे कहते हैं, "इसलिए इस सैन्य रचना में अपने-अपने मोर्चों पर खड़े रहकर आप सभी पितामह भीष्म को अपनी पूरी सहायता दें।"
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श्लोक 12
"तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मो प्रतापवान् ॥"इसके बाद कुरुवंश के परम प्रतापी और वृद्ध पितामह ने सिंह की गर्जना जैसी ध्वनि वाला अपना शंक उच्च स्वर में बजाया जिससे दुर्योधन को बेहद हर्ष हुआ।
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श्लोक 13, 14
"ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ॥"इसके बाद शंख, नगाड़े, बिगुल, तुरही एक साथ बज उठे जिसका स्वर कोलाहलपूर्ण था। वहीं दूसरी ओर श्वेत घोड़ों से सुसज्जित विशाल रथ पर आसीन कृष्ण तथा अर्जुन ने अपने दिव्य शंख बजाए।
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श्लोक 15, 16, 17, 18
"पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः ॥
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥""इसके बाद श्रीकृष्ण महाराज ने पाञ्चजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त, भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख
बजाया। कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाए।
धनुर्धर काशिराज और शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदी के
पांचो पुत्रो और महाबाहो सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु ने अलग-अलग शंख बजाए। " -
श्लोक 19, 20
"स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।"इन सभी शंखो की ध्वनि मिलकर कोलाहलपूर्ण लगने लगी, जिससे धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदय विदीर्ण होने लगे। उस समय पाण्डु पुत्र अर्जुन ने अपना धनुष उठाकर तीर चलाने की शुरुआत की।
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श्लोक 21, 22
"सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥"इसके बाद अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, "हे अच्युत! मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच ले चलें जहां से मैं युद्ध में भाग लेनेवाले और मुझसे संघर्ष करनेवाले लोगों को देख सकूं।
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श्लोक 23
"योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥""इस श्लोक में अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं, ""इस युद्ध में, धृतराष्ट्र के पुत्र
दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए उसकी सेना से लड़ने आए
सभी लोगों को मैं देखना चाहता हूं।"" " -
श्लोक 24
"एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥""इस श्लोक में संजय ने बताया कि कैसे भगवान कृष्ण ने 'हे भरतवंशी' शब्द को
सुनकर दोनों दलों के बीच अर्जुन का रथ खड़ा कर दिया।" -
श्लोक 25
"भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति ॥""श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं, भीष्म और द्रोणाचार्य तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने अर्जुन को खड़ा किया और उनसे कहा कि
हे पार्थ! युद्ध के लिए जुटे हुए इन कौरवों को देख लो।" -
श्लोक 26
"तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान् ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।""अर्जुन ने वहां बड़े भारी मन से दोनों सेनाओं में स्थित ताऊ-चाचों को, दादों-परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को,
पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और शुभचिंतकों को भी देखा " -
श्लोक 27
"तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान् ॥
कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत् ।""जब अर्जुन ने अपने मित्रों और सगे-संबंधियों को देखा तब उन्होंने करुणा से युक्त होकर क्या वचन बोले, आइये जानते हैं।"
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श्लोक 28
"दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।""इस श्लोक में अर्जुन कहते हैं, ""हे कृष्ण! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए इन युद्ध के अभिलाषियों को देखकर मेरा मुंह सूख रहा है तथा मेरा शरीर
कांप रहा है। " -
श्लोक 29
"वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते॥
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते।""अर्जुन की व्यथा गंभीर होती जा रही थी। उनके रौंगटें खड़े हो रहे थे, उनका गांडीव धनुष गिर रहा था तथा उनका बदन
जल रहा था। " -
श्लोक 30
"न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।""इस श्लोक में अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं, ""मेरा मन कचोट हो रहा है, इसलिए मैं इस
युद्ध स्थल में खड़ा नहीं हो पा रहा हूं। मुझे केवल अमंगल के संकेत दिखाई दे रहे हैं" -
श्लोक 31
"न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।""इस श्लोक में अर्जुन कहते हैं, ""हे कृष्णा! इस युद्ध में अपने ही भाई-बंधुओं और
स्वजन-समुदाय को मारकर मैं ना ही अपना कल्याण देखता हूं और ना
ही इसमें मेरा हित है। " -
श्लोक 32, 33, 34, 35
"किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ॥
येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ॥
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥
निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।"इस श्लोक में अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं, "हे गोविन्द! हमारे गुरुजन, पितृगण, पुत्रगण, पितामह, मामा, ससुर, पौत्रगण और सभी संबंधी धन एवं प्राण देने के लिए खड़े हैं। जिनके लिए हम ये राज्य और सुख कमाना चाहते हैं, मैं उन्हें क्यों मारना चाहूंगा। भले ही वो मेरे प्राण ले लें। भले ही मुझे तीनो लोक मिल जाएं, मैं इन सभी से लड़ने के लिए तैयार नहीं।
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श्लोक 36
"पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः ॥
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥""अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं, ""हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को
मारकर तो हमें पाप ही लगेगा"" " -
श्लोक 37, 38
"यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥""अर्जुन कहते हैं, ""अतएव हे माधव! अपने ही भाई धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं
क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम सुखी कैसे रह पाएंगे? भले ही यह लोभ से अभिभूत लोग अपने परिवार को मारने में कोई दोष नहीं देखते, लेकिन हम ऐसे पापकर्मों में क्यों प्रवृत्त हो। " -
श्लोक 39
"कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥"इस श्लोक में अर्जुन कहते हैं कि कुल का नाश होने पर सनातन कुल परम्परा का विनाश होता है और इस तरह कुल के बचे हुए लोग भी अधर्म में प्रवृत्त हो जाते हैं।
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श्लोक 40
"अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ॥"हे कृष्ण! कुल में अधर्म और पाप बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती हैं और ऐसा होने पर अवांछित संताने उत्पन्न होती हैं।
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श्लोक 41
"संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥"अर्जुन आगे कहते हैं, ऐसी अवांछित सन्तानो के पैदा होने से नारकीय जीवन उत्पन्न होता है, जिसमे पारिवारिक परम्परा नष्ट हो जाती है। ऐसे में पतित कुलों के पुरखें प्रेतयोनि में भटकते रहते हैं, क्योंकि उन्हें जल तथा पिंडदान देने की क्रियाएं समाप्त हो जाती है।
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श्लोक 42
"दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥"अर्जुन कहते हैं, "जो लोग कुल का नाश कर, अवांछित सन्तानो को जन्म देते हैं, उनके दुष्कर्मों से
कुल का नाश होता हैं।" -
श्लोक 43
"उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥""अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं, ""हे जनार्दन! हमने ऐसा सुना है, जो लोग कुल धर्म का नाश करते हैं, उन्हें नरक में
वास मिलता हैं।""" -
श्लोक 44
"अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥""अर्जुन आगे कहते हैं, 'कितने दुःख की बात है कि हम लोग बुद्धिमान होकर भी बड़े-बड़े पाप करने को
तयार हो गए हैं और राज्य और सुख के लोभ में स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो
गए हैं।'" -
श्लोक 45, 46
"यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥"अर्जुन कहते हैं, यदि मुझ निहत्ते पर धृतराष्ट्र के पुत्र आक्रमण करते हैं तो यह मेरे लिए श्रेयस्कर होगा। संजय धृतराष्ट्र को बताते हैं कि इस प्रकार शोक से व्याकुल होकर अर्जुन ने अपना धनुष और बाण एक ओर रख दिया और अपने रथ के आसान पर बैठ गए।