इस शो में हम आपको श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक सुनाएंगे और उनके मतलब समझाएंगे।
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श्लोक 1
"तम्, तथा, कृपया, आविष्टम्, अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्,
विषीदन्तम्, इदम्, वाक्यम्, उवाच, मधुसूदनः।।""संजय बोले, ""मधुसूदन यानी भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी दिव्य वाणी में अर्जुन से तब
बात की, जब वे बुरी तरह से परेशान थे और युद्ध करने के विचार से दुःखी
और ग्लानि हो चुके थे।""" -
श्लोक 2
"कुतः, त्वा, कश्मलम्, इदम्, विषमे, समुपस्थितम्,
अनार्यजुष्टम्, अस्वग्र्यम्, अकीर्तिकरम्, अर्जुन।।""श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ""हे अर्जुन! ऐसे समय में आपका इस प्रकार दु:खी
होना अनुचित है। इस प्रकार दु:खी होने से आप ना ही स्वर्ग प्राप्त कर सकेंगे
और ना ही वैभव। आप जैसे श्रेष्ठ पुरुष ऐसी परिस्थितियों में उदास नहीं होते।""" -
श्लोक 3
"क्लैब्यम्, मा, स्म, गमः, पार्थ, न, एतत्, त्वयि, उपपद्यते,
क्षुद्रम् हृदयदौर्बल्यम्, त्यक्त्वा, उत्तिष्ठ, परन्तप।।""आगे श्रीकृष्ण कहते हैं, ""हे अर्जुन! एक वीर, साहसी और बहादुर योद्धा बनो, कोई
कायर या कमज़ोर व्यक्ति नहीं। आप जैसे महान योद्धा का अपने दुश्मनों का
सामना करने और उन्हें युद्ध में पराजित करने से पीछे हटना सही नहीं है।""" -
श्लोक 4
"कथम्, भीष्मम्, अहम्, सङ्ख्ये, द्रोणम्, च, मधुसूदन,
इषुभिः, प्रति, योत्स्यामि, पूजार्हौ, अरिसूदन।।""अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं, ""हे मधुसूदन! हे शत्रुहन्ता! जिन महापुरुषों की मैं पूजा
करता हूँ, ऐसे पूज्यनीय भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य पर मैं युद्धभूमि में बाण
कैसे चलाऊँगा?""" -
श्लोक 5
"गुरून्, अहत्वा, हि, महानुभावान्, श्रेयः, भोक्तुम्,
भैक्ष्यम्, अपि, इह, लोके, हत्वा, अर्थकामान्, तु,
गुरून्, इह, एव, भुजीय, भोगान्, रुधिरप्रदिग्धान्,।। ""अर्जुन कहते हैं, ""मेरे गुरुओं की हत्या का आरोप अपने सिर लेकर जीने से बेहतर
है कि मैं सारा जीवन भिक्षा मांगकर जी लूँ, क्योंकि उन्हें मारने के बाद मेरे पास
केवल उनके खून से सने हुए धन और इच्छाओं का सुख बचेगा।""" -
श्लोक 6
"न, च, एतत्, विध्मः, कतरत्, नः, गरीयः, यत्, वा,
जयेम, यदि, वा, नः, जयेयुः, यान् एव, हत्वा, न,
जिजीविषामः, ते, अवस्थिताः, प्रमुखे, धार्तराष्ट्राः।।""अर्जुन भगवन से कहते हैं, ""हम नहीं जानते कि युद्ध करना सही है या नहीं और
हम यह भी नहीं जानते कि हम उन पर विजय प्राप्त कर पाएंगे या नहीं। धृतराष्ट्र
के पुत्र हमारे खिलाफ खड़े ज़रूर हैं लेकिन उन्हें मारने के बाद हम जी नहीं पाएंगे।"" " -
श्लोक 7
"कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः, पृच्छामि, त्वाम्,
धर्मसम्मूढचेताः, यत्, श्रेयः, स्यात्, निश्चितम्, ब्रूहि,
तत्, मे, शिष्यः, ते, अहम्, शाधि, माम्, त्वाम्, प्रपन्नम्।।""अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं, ""हे भगवन! आपका शिष्य होने के नाते मैं आपकी
शरण में आया हूँ। इस युद्ध के विचार ने मुझे कमज़ोर बना दिया है और मैं सही
और गलत के बीच फैसला नहीं कर पा रहा हूँ। इसलिए कृपया कर अब आगे
आप ही मुझे रास्ता दिखाएँ।""" -
श्लोक 8
"न, हि, प्रपश्यामि, मम, अपनुद्यात्, यत्, शोकम्,
उच्छोषणम्, इन्द्रियाणाम्, अवाप्य, भूमौ, असपत्नम्,
ऋद्धम्, राज्यम्, सुराणाम्, अपि,च,आधिपत्यम्।।""अर्जुन आगे कहते हैं, ""हे भगवन! युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद, मुझे संपूर्ण
पृथ्वी का राज्य, धन और संपत्ति तो प्राप्त होंगे, लेकिन इनमें से कुछ भी मेरे
उस दुःख की भरपाई नहीं कर पाएंगे जो मुझे अपनों को मारकर होगा।""" -
श्लोक 9
"एवम्, उक्त्वा, हृषीकेशम्, गुडाकेशः, परन्तप,
न, योत्स्ये, इति, गोविन्दम्, उक्त्वा, तूष्णीम्, बभूव, ह।।""संजय दृतराष्ट्र से कहते हैं, ""हे राजन! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी
श्रीकृष्ण को फिर से कहते हैं- ""मैं युद्ध नहीं करूंगा।"" ये स्पष्ट कहकर चुप हो
जाते हैं।"" " -
श्लोक 10
"तम्, उवाच, हृषीकेशः, प्रहसन्, इव, भारत,
सेनयोः, उभयोः, मध्ये, विषीदन्तम्, इदम्, वचः।।""संजय ने धृतराष्ट्र से कहा, ""हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों
सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए से यह वचन बोले।""" -
श्लोक 11
"अशोच्यान्, अन्वशोचः, त्वम्, प्रज्ञावादान्, च, भाषसे,
गतासून्, अगतासून्, च, न, अनुशोचन्ति, पण्डिताः।।""श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ""हे अर्जुन! तुम उनके लिये शोक कर रहे हो जो शोक
करने योग्य नहीं है। जो बुद्धिमान और पंडितजन होते हैं, वे ना तो जीवित प्राणी
के लिये शोक करते हैं और ना ही मृत प्राणी के लिये।" -
श्लोक 12
"न, तु, एव, अहम्, जातु, न, आसम्, न, त्वम्, न, इमे,
जनाधिपाः, न, च, एव, न, भविष्यामः, सर्वे, वयम्, अतः,
परम्।।""आगे भगवन् अर्जुन से कहते हैं, ""ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं ना रहा हूँ या तुम
ना रहे हो अथवा ये समस्त राजा ना रहे हो और ना ऐसा है कि भविष्य में हम
लोग नहीं रहेंगे।""" -
श्लोक 13
"देहिनः, अस्मिन्, यथा, देहे, कौमारम्, यौवनम्, जरा,
तथा, देहान्तरप्राप्तिः, धीरः, तत्रा, न, मुह्यति।।""श्रीकृष्ण समझाते हैं, ""जिस प्रकार हमारा जीव शरीर के माध्यम से बचपन, जवानी
और वृद्धावस्था से गुज़रता है, उसी प्रकार मृत्यु के बाद हमारे जीव को दूसरा शरीर
और एक नया जीवन मिलता है।"" इसका अर्थ यह है कि शरीर मर सकता है, परंतु
आत्मा कभी मरती नहीं है। " -
श्लोक 14
"मात्रास्पर्शाः, तु, कौन्तेय, शीतोष्णसुखदुःखदाः,
आगमापायिनः, अनित्याः, तान्, तितिक्षस्व, भारत।।""श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ""हे कुन्तीपुत्र ! सर्दी, गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले
इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिये, हे
भारत! तू उनको सहन कर।""" -
श्लोक 15
"यम्, हि, न, व्यथयन्ति, एते, पुरुषम्, पुरुषर्षभ,
समदुःखसुखम्, धीरम्, सः, अमृतत्वाय, कल्पते।।""भगवन् समझाते हैं कि जो पुरुष अपनी इंद्रियों और कामुक वस्तुओं अथवा
इच्छाओं से प्रभावित नहीं होता है, वह अमर हो जाता है। उसे सभी पुरुषों में
सबसे अच्छा माना जाता है क्योंकि वह सुख और दू:ख के बीच संतुलन बनाए
रख सकता है।" -
श्लोक 16
"न, असतः, विद्यते, भावः, न, अभावः, विद्यते, सतः,
उभयोः, अपि, दृष्टः, अन्तः, तु, अनयोः, तत्त्वदर्शिभिः।।""श्रीकृष्ण कहते हैं कि असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है।
इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है। " -
श्लोक 17
"अविनाशि, तु, तत्, विद्धि, येन्, सर्वम्, इदम्, ततम्,
विनाशम्, अव्ययस्य, अस्य, न, कश्चित्, कर्तुम्, अर्हति।।""श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ""हे अर्जुन! हम सभी जीवन और मृत्यु के इस चक्र में
जी रहे हैं। वास्तव में, केवल ईश्वर को ही अमर माना जाता है, क्योंकि वे एक-
मात्र सत्पुरुष है। ईश्वर की शक्ति को कोई भी नष्ट नहीं कर सकता। उनकी शक्ति
हर जीवित प्राणी और हर कण में मौजूद है।" -
श्लोक 18
"अन्तवन्तः, इमे, देहाः, नित्यस्य, उक्ताः, शरीरिणः,
अनाशिनः, अप्रमेयस्य, तस्मात्, युध्यस्व, भारत।।""श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं, ""हे अर्जुन! केवल शरीर नष्ट हो सकता है, लेकिन
आत्मा अविनाशी, स्थायी और अमर रहती है। इसलिए तुम अपने हथियार
उठाओ और युद्ध लड़ो।""" -
श्लोक 19
"य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥ ""आगे भगवान् कहते हैं, ""जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको
मरा हुआ समझता है, वे दोनों ही अज्ञानी है, क्योंकि यह आत्मा वास्तव में ना तो
किसी को मारती है और ना किसी द्वारा मारी जाती है।""" -
श्लोक 20
"न जायते म्रियते वा कदाचि-न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ ""यह आत्मा किसी भी काल में ना तो जन्म लेती है, ना मरती है और ना ही कभी जन्म
लेगी। यह अजन्मी, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं
मारी जा सकती है।" -
श्लोक 21
"वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥ ""श्रीकृष्ण कहते हैं, ""हे पृथापुत्र! जो जानता है कि मनुष्य इस आत्मा को अविनाशी,
शाश्वत, अजन्मी और अव्यय होती है, वह मनुष्य किसी को कैसे मार सकता है या
किसी के द्वारा कैसे मारा जा सकता है?""" -
श्लोक 22
"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥ ""जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रों को धारण करता है,
उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीरों को त्याग कर नये शरीरों को धारण
करता है।" -
श्लोक 23
"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥ ""इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल
नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता" -
श्लोक 24
"अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥ ""यह आत्मा न तो तोडा़ जा सकता है, न ही जलाया जा सकता है, न इसे घुलाया जा
सकता है और न ही सुखाया जा सकता है, यह आत्मा शाश्वत, सर्वव्यापी, अविकारी,
स्थिर और सदैव एक सा रहने वाला है।" -
श्लोक 25
"अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥ ""यह आत्मा अदृश्य, अकल्पनीय, और अपरिवर्तनीय कहा जाता है, इस प्रकार आत्मा
को अच्छी तरह जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है।" -
श्लोक 26
"अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि॥ ""हे महाबाहु! यदि तू इस आत्मा को सदा जन्म लेने वाला तथा सदा मरने वाला मानता
है, तो भी तू इस प्रकार शोक करने योग्य नहीं है।" -
श्लोक 27
"जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥ ""जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म निश्चित है,
अत: इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है।" -
श्लोक 28
"अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥ ""हे भरतवंशी! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट रहते है और मरने के बाद भी
अदृश्य हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही इन्हे देखा जा सकता हैं, अत: शोक करने
की कोई आवश्यकता नही है?" -
श्लोक 29
"आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥""कोई इस आत्मा को आश्चर्य की तरह देखता है, कोई इसका आश्चर्य की तरह वर्णन
करता है तथा कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है और कोई-कोई तो इसके विषय
में सुनकर भी कुछ नहीं समझ पाता है।" -
श्लोक 30
"देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि॥ ""हे भरतवंशी! इस आत्मा का शरीर में कभी वध नहीं किया जा सकता है, अत: तुझे
किसी भी प्राणी के लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है।" -
श्लोक 31
"स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥""हे अर्जुन! क्षत्रिय होने के कारण अपने धर्म का विचार करके भी तू संकोच करने
योग्य नहीं है, क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्म के लिये युद्ध करने के अलावा अन्य कोई
श्रेष्ठ कार्य नहीं है।" -
श्लोक 32
"यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्॥""हे पार्थ! वे क्षत्रिय भाग्यवान है जिन्हे ऎसॆ युद्ध के अवसर अपने-आप प्राप्त होते है
जिससे उनके लिये स्वर्ग के द्वार खुल जाते है।" -
श्लोक 33
"अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥ ""किन्तु यदि तू इस धर्म के लिये युद्ध नहीं करेगा तो अपनी कीर्ति को खोकर कर्तव्य-
कर्म की उपेक्षा करने पर पाप को प्राप्त होगा।" -
श्लोक 34
"अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्ति र्मरणादतिरिच्यते॥""लोग सदैव तेरी बहुत समय तक रहने वाली अपकीर्ति का भी वर्णन करेंगे और
सम्मानित मनुष्य के लिए अपकीर्ति मृत्यु से भी बढ़कर है।" -
श्लोक 35
"भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥ ""जिन-जिन योद्धाओं की दृष्टि में तू पहले सम्मानित हुआ है, वे महारथी लोग तुझे डर
के कारण युद्ध-भूमि से हटा हुआ समझ कर तुच्छ मानेंगे।" -
श्लोक 36
"अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्॥""तेरे शत्रु तेरी सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से कटु वचन भी कहेंगे, तेरे लिये
इससे अधिक दु:खदायी और क्या हो सकता है?" -
श्लोक 37
"हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥ ""हे कुन्तीपुत्र! यदि तू युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग को प्राप्त करेगा और यदि तू युद्ध
जीत गया तो पृथ्वी का साम्राज्य भोगेगा, अत: तू दृढ-संकल्प करके खड़ा हो जा
और युद्ध कर।" -
श्लोक 38
"सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥ ""सुख या दुख, हानि या लाभ और विजय या पराजय का विचार त्याग कर युद्ध करने
के लिये ही युद्ध कर, ऎसा करने से तू पाप को प्राप्त नही होगा।" -
श्लोक 39
"एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि॥""हे पृथापुत्र! यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञान-योग (सांख्य-योग) के विषय में कही गई और
अब तू इसको निष्काम कर्म-योग के विषय में सुन, जिससे तू इस बुद्धि से कर्म
करेगा तो तू कर्मों के बंधन से अपने को मुक्त कर सकेगा।" -
श्लोक 40
"यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥""इस प्रकार कर्म करने से न तो कोई हानि होती है और न ही फल-रूप दोष लगता
है, अपितु इस निष्काम कर्म-योग की थोडी़-सी भी प्रगति जन्म-मृत्यु के महान भय
से रक्षा करती है।" -
श्लोक 41
"व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥""हे कुरुनन्दन! इस निष्काम कर्म-योग में दृड़-प्रतिज्ञ बुद्धि एक ही होती है, किन्तु जो
दृड़-प्रतिज्ञ नहीं है उनकी बुद्धि अनन्त शाखाओं में विभक्त रहती हैं।" -
श्लोक 42 & 43
श्लोक 42 "यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥""हे अर्जुन! जो(अयथार्थ वेद के कहने वाले) अविवेकीजन इस प्रकार की शोभायुक्त
वाणी कहा करते हैं कि स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है।"श्लोक 43 "कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥""जिनके लिए स्वर्ग ही परम प्राप्य है, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग
तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं में रूचि रखने वाले
हैं" -
श्लोक 44
"भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥""जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, और जिनका चित्त उस वाणी द्वारा हर
लिया गया है, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चियात्मिका बुद्धि नहीं होती।" -
श्लोक 45
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥ ""हे अर्जुन! वेदों में मुख्य रुप से प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है इसलिए तू इन
तीनों गुणों से ऊपर उठ, हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों से रहित तथा सुरक्षा की सारी
चिन्ताओं से मुक्त आत्म-परायण बन।" -
श्लोक 46
"यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥""सभी तरफ़ से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय के प्रति मनुष्य
का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों से
उतना ही प्रयोजन रह जाता है।" -
श्लोक 47
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥""तुम्हारा अधिकार कर्म करने में ही है, उनके फलों में नहीं। तुम कर्मों के फल का
कारण मत बनो और तुम्हारी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।" -
श्लोक 48
"योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥""हे धनंजय! योग में स्थित रहते हुए तुम आसक्ति को त्यागकर, सिद्धि और असिद्धि में
समान रह कर कर्मों को करो, इस समता को ही योग कहते हैं।" -
श्लोक 49
"दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥""हे धनंजय! इस(समता-रूपी) बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी के हैं
इसलिए तुम समबुद्धि का ही आश्रय लो क्योंकि आसक्ति पूर्वक कर्म करने वाले
अत्यंत दीन हैं।" -
श्लोक 50
"बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥""बुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों से इसी लोक में मुक्त हो जाता है इसलिए तुम
समत्व रूप योग के लिए प्रयत्न करो, यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है।" -
श्लोक 51
"कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्॥""क्योंकि कर्म-बुद्धि से युक्त मनीषी(विचारक) भी कर्मों के फल को त्यागकर जन्म-
रूपी बंधन से मुक्त होकर निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं।" -
श्लोक 52
"यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥""जिस काल में तुम्हारी बुद्धि मोहरूपी दलदल को भली-भाँति पार कर जाएगी, उस
समय तुम सुने हुए और भविष्य में सुनने वाले सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो
जाओगे।" -
श्लोक 53
"श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥""भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तुम्हारी बुद्धि जब स्थिर होकर अचल
समाधि में स्थित हो जाएगी तब तुम्हारी बुद्धि योग को प्राप्त हो जाएगी।" -
श्लोक 54
"स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥""अर्जुन ने कहा - हे केशव! अध्यात्म में लीन स्थिर-बुद्धि वाले मनुष्य का क्या लक्षण
है? वह स्थिर-बुद्धि मनुष्य कैसे बोलता है, किस तरह बैठता है और किस प्रकार
चलता है?" -
श्लोक 55
"प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥""श्री भगवान् बोले- हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं
को भलीभाँति त्याग देता है और मन से आत्म-स्वरुप का चिंतन करता हुआ उसी में
संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।" -
श्लोक 56
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥""दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसका मन विचलित नहीं होता है, सुखों की प्राप्ति की
इच्छा नहीं रखता है, जो आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त हैं, ऐसा स्थिर मन वाला
मुनि कहा जाता है।" -
श्लोक 57
"यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ ""इस संसार में जो मनुष्य न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न अशुभ के
प्राप्त होने पर द्वेष करता है, ऎसी बुद्धि वाला पूर्ण ज्ञान मे स्थिर होता है।" -
श्लोक 58
"यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥""जिस प्रकार कछुवा सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है, उसी प्रकार जब
मनुष्य इन्द्रियों को इन्द्रिय-विषयों से सब प्रकार से खींच लेता है, तब वह पूर्ण
चेतना में स्थिर होता है।" -
श्लोक 59
"विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते॥""इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले मनुष्य के विषय तो मिट जाते हैं, परन्तु
उनमें रहने वाली आसक्ति बनी रहती है, ऎसे स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य की आसक्ति
भी परमात्मा का साक्षात्कार करके मिट जाती है।" -
श्लोक 60
"यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥""हे अर्जुन! इन्द्रियाँ इतनी प्रबल तथा वेगवान होती हैं कि जो मनुष्य उन इन्द्रियों को
वश में करने का प्रयत्न करता है, उस विवेकी मनुष्य के मन को भी वे बल-पूर्वक
हर लेतीं है।" -
श्लोक 61
"तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ ""जो मनुष्य इन्द्रियों को पूर्णतया वश में रखते हुए अपनी चेतना को मुझमें स्थिर कर
देता है, वही मनुष्य स्थिर-बुद्धि वाला कहलाता है।" -
श्लोक 62
"ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥""इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति हो जाती
है, ऎसी आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न
पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।" -
श्लोक 63
"क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥ ""क्रोध से अत्यन्त पूर्ण मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मरण-शक्ति में भ्रम उत्पन्न होता
है, स्मरण-शक्ति में भ्रम हो जाने से बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि के नष्ट होने से
मनुष्य का अधो-पतन हो जाता है।" -
श्लोक 64
"रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥ ""किन्तु सभी राग-द्वेष से मुक्त रहने वाला मनुष्य अपनी इन्द्रियों के संयम द्वारा मन को
वश करके भगवान की पूर्ण कृपा प्राप्त कर सकता है।" -
श्लोक 65
"प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥""इस प्रकार भगवान की कृपा प्राप्त होने से सम्पूर्ण दुःखों का अन्त हो जाता है तब
उस प्रसन्न-चित्त मन वाले मनुष्य की बुद्धि शीघ्र ही एक परमात्मा में पूर्ण रूप से
स्थिर हो जाती है। " -
श्लोक 66
"नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्॥""जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ वश में नहीं होती है उस मनुष्य की न तो बुद्धि स्थिर होती है,
न मन स्थिर होता है और न ही शान्ति प्राप्त होती है उस शान्ति-रहित मनुष्य को सुख
किस प्रकार संभव है?" -
श्लोक 67
"इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥""जिस प्रकार पानी पर तैरने वाली नाव को वायु हर लेती है, उसी प्रकार विचरण
करती हुई इन्द्रियों में से किसी एक इंद्री पर मन निरन्तर लगा रहता है, वह एक
इंद्री ही उस मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है।" -
श्लोक 68
"तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥"" हे महाबाहु! जिसकी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से सभी प्रकार से विरक्त होकर
उसके वश में रहती हैं, उसी मनुष्य की बुद्धि स्थिर रहती है।" -
श्लोक 69
"या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥""जो सभी प्राणीयों के लिये रात्रि के समान है, वह बुद्धि-योग में स्थित मनुष्य के लिये
जागने का समय होता है और जो समस्त प्राणीयों के लिये जागने का समय होता है,
वह स्थिर-प्रज्ञ मुनि के लिए वह रात्रि के समान होता है।" -
श्लोक 70
"आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥""जिस प्रकार अनेकों नदियाँ सभी ओर से परिपूर्ण, दृड़-प्रतिष्ठा वाले समुद्र में समुद्र
को विचलित किए बिना ही समा जाती हैं, उसी प्रकार सभी इच्छायें स्थित-प्रज्ञ
मनुष्य में बिना विकार उत्पन्न किए ही समा जाती हैं, वही मनुष्य परम-शान्ति को
प्राप्त होता है, न कि इन्द्रिय सुख चाहने वाला।" -
श्लोक 71
"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति॥ ""जो मनुष्य समस्त भौतिक कामनाओं का परित्याग कर इच्छा-रहित, ममता-रहित
और अहंकार-रहित रहता है, वही परम-शांति को प्राप्त कर सकता है।" -
श्लोक 72
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥""हे पार्थ! यह आध्यात्मिक जीवन (ब्रह्म की प्राप्ति) का पथ है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य
कभी मोहित नही होता है, यदि कोई जीवन के अन्तिम समय में भी इस पथ पर
स्थिति हो जाता है तब भी वह भगवद्प्राप्ति करता है।"